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मार्केज के पुनर्पाठ - 4 / अंचित

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(आख़िरी ख़त)

मेरे अंदर कुछ बार-बार चिंहुकता है
अपने गाँव की उस दीवार
 (जिस के पास खड़ा कर लोगों को गोलियाँ मारी जाती थीं)
 से सटकर खड़े होते ही,
मेरे अंदर कोई लहर उठती है,
और बहुत दूर जो समंदर है
उससे मिल जाना चाहती है।

वेदना के जिस खारे समंदर पर कोई पुल नहीं है,
तुम एक टापू की तरह इंतज़ार करती हो।

याद करना कि मैं भी इंतज़ार करता हूँ,
सब सूरजों और चाँदों के बीतते हुए,
लकड़ियों के गीले होते और सूखते हुए,
परछाइयों को दीवार बनते हुए देखते हुए
स्मृति-दोषों के साधारणीकरण के बाद भी,
हर दूसरी स्त्री के कान चूमते हुए,
बार बार लौट जाता हूँ अपने अंदर।


भीड़ के छोटे-छोटे चौखाने,
आत्मा पर जोंक की तरह चिपकते हैं
और एकांत का परिश्रम, आईनों को चमकाने भर ही फ़लिभूत होता है,
मिट्टी की ओर लौट जाना तब-गाढ़ी भूरी मिट्टी, जिससे सनी हुई
ख़ून की एक मोटी जमती हुई लहर,
और तीन सौ लोग-नोचते हुए मेरी आत्मा।

जितनी बार लौटता हूँ बाहर,
सन्न करती है भीड़, आपाधापी,
कि कुछ नहीं बदलता हर बार,
बिना फ़िल्टर का शोर और सब ध्वनियों को काट फेंकने की जदोजहद।
एक भयंकर तूफ़ान आता है और मेरा जहाज़ ऐसे थपेड़े खाता है
मानों पानी हमदोनो का पाप हो-
खींचता हुआ बार-बार और हम बार-बार विरह उद्वेलित समर्पण करते हुए.

 (मैं नाविक हूँ, मेरे पैर में घिरनी बनी है-कोई साइरन नहीं
जैसे ग्रीक समंदरों में होती है, पानी का छद्म काफ़ी है।)

फिर भी तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ
क्योंकि लैम्प की रोशनी में जलती हुई रातों का प्रयोजन यही है,
क्योंकि पीली धूप और बरसातों को मैंने और किसी तरह नहीं देखा,
क्योंकि मेरी आत्मा जहाँ सिली हुई है मेरे माँस से,
वहाँ जब भी चोट लगती है, मुझे महसूस होता है कि
मैं रेगिस्तान में टंगा हुआ जब भी आसमान की तरफ़ देखूँगा,
मेरी हथेलियों में जब भी मोटी कीलों से छेद किए जाएँगे,
मुझे सर ऊपर उठाए ये चीख़ना नहीं पड़ेगा कि
तुमने मुझे अकेला क्यों छोड़ दिया?