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मार-गज़ीदः / परवीन शाकिर

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मार-गज़ीदः<ref>साँप के काटे हुए</ref>

मासूमियत और हमाक़त<ref>मूर्खता</ref> में पल भर का फ़ासला है
मेरी बस्ती में पिछली बरसात के बाद
इक ऐसी अ’साब्शिकन<ref>होश उड़ाने वाली</ref> ख़ुशबू फ़ैली है
जिसके असर से
मेरे क़बीले के सारे ज़ीरक<ref>अक़्लमंद</ref> अफ़राद<ref>’फ़र्द’ का बहुवचन यानी लोग</ref>
अपनी-अपनी आँखों की झिल्ली मटियाली कर बैठे हैं
सादालौह<ref>भोले भाले</ref> तो पहले ही
सरकंडों और चमेली के झाड़ों के पास
बेसुध पाए जाते थे
दहन<ref>मुँह</ref> के अन्दर घुलते ही
नीम के पत्तों का यूँ बर्ग-ए-गुलाब<ref>गुलाब की पत्ती</ref> हो जाना तो मज़बूरी थी
हैरत तो इस बात पे है के आक के पौधों की माजूदगी के बावस्फ़<ref>बावजूद</ref>
वारिस-ए-तसनीम-ओ कौसर<ref>जन्नत में पाई जाने वाली नदियों के नाम</ref>
ऐसी लुआब-आलूद<ref>लसदार</ref> मिठास को आब-ए-हयात<ref>अमृत</ref> समझ बैठे हैं।
मासूमियत और हमाक़त में पल-भर का फ़ासला है !

शब्दार्थ
<references/>