मालवानां जयः / महेन्द्र भटनागर
वर्ष बीते दो हज़ार !
बढ़ रहे थे देश में जब
क्रूर-अत्याचार नित हूणों-शकों के,
और जनता खो रही थी
आत्म-गौरव, शक्ति अपनी,
सभ्यता, सम्मान अपना !
धर्म, संस्कृति का पतन
जब हो रहा था तीव्र गति से,
छा रहे थे भय-निराशा मेघ आ-आ !
संगठित भी थी नहीं जब
वीर मालव-जाति सारी,
राष्ट्र-गौरव भूलकर
संकीर्ण बनते जा रहे थे
मालवों के हृदय दुर्बल !
नष्ट होता जा रहा था
सब पुरातन स्वस्थ वैभव !
छा रहा था देश में
गहरा अँधेरा जब भयंकर,
रात दुख की बढ़ रही थी
नाश के साधन अमित एकत्रा कर;
ठीक ऐसे ही समय
ज्योति देखी विश्व ने,
नव-जागरण के स्वर सुने !
उजड़े हुए, बिगड़े हुए,
मिटते हुए, सोते हुए
इस देश के जन-प्राण को
आ वीर विक्रम ने जगाया !
संगठन कर पूर्ण बिखरी शक्ति का
संसार को अनुभव कराया —
मिट नहीं सकते कभी हम,
त्याग हम में है अपरिमित,
बाहुओं में बल अमित,
उद्घोष करते हैं —
अभय मालव, अभय भारत !
अमर मालव, अमर भारत !
1945