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मालूम नहीं कब से मैं दर ढूँढ रहा हूँ / राम नाथ बेख़बर

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मालूम नहीं कब से मैं दर ढूंढ रहा हूँ
काँधे पे लिए घर को मैं घर ढूंढ रहा हूँ

जाने वो किधर हैं,मैं किधर ढूंढ रहा हूँ
पागल की तरह रोज़ मगर ढूंढ रहा हूँ

मज़बूरियों में घिर के भी झुकना नहीं आया
इस मुल्क में फिर से वही सर ढूंढ रहा हूँ

ज़ुल्मत मिटा के रौशनी दुनिया में जो भर दे
ऐसा मैं हर इक दिल में शरर ढूंढ रहा हूँ

मैं कौन हूँ कैसा हूँ ये मुझको नहीं मालूम
दिन रात ही मैं ख़ुद को इधर ढूंढ रहा हूँ