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मावस की यह रात और उस पर यह तनहाई / रंजना वर्मा

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मावस की यह रात और उस पर यह तनहाई
मेरे आँगन तुम तो न आये याद चली आयी॥

दिप दिप करते अगणित दीपक
गगन गली जलते,
आश निराशा कि घाटी में
भटकाते छलते।

उभ चुभ करती साँसें नापें मन की गहराई।
मेरे आँगन तुम तो न आये याद चली आयी॥

मुट्ठी भर सपनों की खातिर
सच को ठुकराते,
ख्वाब सलोने तितली जैसे
पल में उड़ जाते।

इंद्रधनुष के रंग नहीं जीवन की सच्चाई।
मेरे आँगन तुम तो न आये याद चली आयी॥

शून्य सिंधु तट की सिकता में
शंख सीप चुनते,
चंद्रकिरण-सी जगमग आशा
की जाली बुनते।

लवण सिंधु ने पर कब इसकी तृष्णा सरसाई।
मेरे आँगन तुम तो न आये याद चली आयी॥