मास्टर जी / सुरेन्द्र रघुवंशी
जिस कक्षा को तुम पढ़ाते हो
उसका कोर्स भी
बदल चुका कई बार
लेकिन तुम नहीं बदले, मास्टरजी !
तुम्हारे सिर के ऊपर से
गुज़र गए कितने ही मौसमों ने
बालों को कर दिया सफ़ेद
इतने वसन्तों की हवाओं के थपेड़ों ने
ढीली कर दी तुम्हारी खाल
तुम्हारी बस्ती का
नक़्शा ही बदल गया
तुम घिर गए पक्के-ऊँचे मकानों से
पर तुम नहीं बदले, मास्टरजी !
और न ही तुम्हारा वर्षाें पुराना
कच्चा खपरैल घर
जिसके दरवाज़े की साँकल
अब भी नहीं लगती
बिना एक किवाड़ को हाथ से ऊँचा उठाए
अपने एकमात्र पुरखों के खेत को
तुम नहीं बचा पाए
सरपंच के अतिक्रमण से
तुम्हारी अर्जियाँ रद्दी की दुकान से
हलवाई की होटल तक का
कर चुकी हैं सफर तय
और हाल ही में फेंकी जा चुकी हैं
कचौरी और समोसा खा चुकने के बाद
अपने ही पढ़ाए हुये लड़के
अब बड़े होकर
तुम्हें नहीं करते नमस्कार
यह समझने में तुम्हें बहुत वक़्त लगेगा
कि वे कहाँ भूल आए
तुम्हारे दिए संस्कार
और बीच में ही कहाँ से सीख गए
मास्टरों को नहीं, हिटलरों को प्रणाम करना ?