मास-प्रकरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
आसिन - कुश-कासक आसन उपर, आसिन जागर जोति
पितर पूजि देवी पुजल, कुमुद कौमुदी मोति।।1।।
कातिक - दीप जराय, जगाय हरि, भाइ-बहिनिकेँ नोति
गाय पालि, कातिक खटथि, दिन सुख रातिक व्योँति।।2।।
अगहन - धन-धन अगहन धान-धन भरल खेत - खरिहान
जन बनिहारहु धनिक जनु किनइछ पान-मखान।।3।।
पूस - यदपि पड़ोसी अगहनक, गहन केहन खल पूस
निशिकर दिवा - उलूक पुनि सात तकारे घूस।।4।।
माघ - लुकझुक दिवस क झोंझ बिच बिचरि, राति झट घाघ
झपटल बाघ प्रचंड ई जन - मन कम्पी माघ।।5।।
फागुन - फागुन गुन कत गुन अधिक सगुन उचारथि बाल
दुरत पीतिमा, पतिक कर परसि, गुलाबी गाल।।6।।
राति गुलाबी जाड़ पुनि, कमल प्रभाती जागु
सूर्यमुखी दिन रंगमय साँझ अबीरी फागु।।7।।
चैत - चकचक चैतक चान नभ, कुहु-कुहु कोइली-बोल
मह-मह महुआ वन बनल, धह-धह विरहिनि टोल।।8।।
राति पहाड़ी काटि कत समतल दिवस चलैत
चान संतुलित शीत-तप-तुलित ललित नित चैत
पद पल्लव, कर मंजरी, उर टिकला, मुख चान
पिक धुनि चैत नचैत धनि, चोरा लेल चित-प्रान।।10।।
वैशाख - तृण कंदन, खंडन जलक रज मंडन, प्रिय चड
रासभ नन्दन, बंदना वैशाखक सुख - खंड।।11।
जेठ - अणु भट्टी जेठे बनल जग जरि भाफ अखंड
अति प्रचंड मातण्डहिक बम विभ्राट प्रचंड।।12।।
दिनहु घमय, निशिहु न सुतय, अन्न-पानि नहि पेट
तपय कते वर्षान्न हित जेठ-मास मे जेठ।।13।।
आषाढ़ - बुन्द बुन्द खन - संपदा जमा, कमासुत गाढ़
समय पाबि बँटइछ सजग जग भरि धनी अषाढ़।।14।।
प्रथम दिवस आषाढ़मे मेघ दूत नभ देश
प्रकृति बिरहिनी केँ सदय दैछ सरस संदेश।।15।।
साओन - वर नवीन घन ब्याहि धनि, सौदामिनि अति प्रीति।
परब दुजथि मधुश्रावणी, वर्षाभ्यंतर रीति।।16।।
भादव - भादव कादवमय निधिन अह - निश निपट घनांध!
गरजि - बरसि डुबबथि जगत जनु जड़ धनिक धनांध।।17।।
नभ सागर तट वादरक यादव उमड़ि लड़ैछ
जल कादव क्रीड़ा - समर, अन्त वज्र बजरैछ।।18।।