माहिए (171 से 180) / हरिराज सिंह 'नूर'
171. उठना भी ये कैसा है
ज़ीस्त में ऐ भाई!
गिरने के जो जैसा है
172. ये रंग अनूठे हैं
होंठ तिरे सजनी
मनमीत के जूठे हैं
173. वो दिल को करे घायल
पाँव में जो सजनी!
तू पहने हुए पायल
174. माथे पे सजी बिंदी
स्वर्ण-सी काया पर
लगती है बड़ी चंगी
175. हमको है जो आज़ादी
क्षीण करे उसको
बढ़ती हुई आबादी
176. नारा ये हमारा है
देश है वीरों का
ये जान से प्यारा है
177. दिल-ज़हन को तड़पाए
रंग-बिरंगा जब
आँचल तिरा लहराए
178. गंगा का हमें पानी
याद दिलाता है
पुरखों की जो क़ुर्बानी
179. दुनिया ने ये माना है
सत्य-अहिंसा का
अनमोल ख़ज़ाना है
180. कैसे ये गिने जाएं
शब में खिले तारे
जो सब न नज़र आएं