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माहो-अंजुम रहे ग़मीं शब भर / शहरयार

माहो-अंजुम रहे ग़मीं शब भर
कोई रोता रहा कहीं शब भर

उनके वादे का ज़िक्र क्या कीजे
आहटें गूंजती रहीं शब भर

ज़िन्दगी जैसे होश में आये
रौनकें इस तरह की थीं शब भर

ग़म से घबरा गये तो पुरसिश को
कितनी परछाइयां उठीं शब भर

आस का दर, उम्मीद का दामन
वहश्तें देखती रहीं शब भर

ख़ुश्क पत्तों के ढेर में किसको
निकहतें ढूढ़ती रहीं शब भर

था ग़ज़ब जागना तमन्ना का
रक्स करती रही ज़मीं शब भर

हर पतंगें के पर सलामत हैं
शमएं बेबात क्यों जलीं शब भर।