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माहौल साजगार फ़िज़ा ख़ुश्गवार है / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

माहौल साज़गार, फ़िज़ा ख़ुशगवार है
ऐ दोस्त! आ भी जा, तुझे क्या इन्तिज़ार है?

मेरा गिरेबां, ख़ैर, अगर तार-तार है!
अपनी ख़बर भी कुछ तुझे दामान-ए-यार! है?

एहसान किस क़दर तिरा शहर-ए-निगार! है
मैं हूँ, जुनूं है, लज़्ज़त-ए-संग-ए-हज़ार है

याद-ए-शबाब, याद-ए-जुनूं, याद-ए-आरज़ू!
अब है तो ज़िन्दगी का इन्हीं पर मदार है

कम-बख़्त दिल ही मेरा नहीं इख़्तियार में
कहने को दिल का ख़ुद पे बहुत इख़्तियार है!

गुज़री है धूप इस पे हज़ारों ख़िज़ाओं की
शाइस्ता-ए-खिज़ाँ है तो मेरी बहार है!

कहते हैं सब्र को वो तक़ाज़ा -ए-ज़िन्दगी
और ज़िन्दगी को पूछिए तो ख़ुद ही बार है!

किस जी से दिल को मैं भला इल्जाम-ए-इश्क़ दूँ?
वो ख़ुद ही अपनी आदतों पे शर्मसार है

क्या और कोई दिल-जला तुझ को नहीं मिला?
पर्ख़ाश क्यों मुझी से ग़म-ए-रोज़गार! है?

यूँ न हो ‘सरवर"! ग़म-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त से तंग दिल
नाम-ए-ख़ुदा ये ग़म ही तो इक ग़म-गुसार है!