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माह-ए-कामिल हो मुक़ाबिल यार के रू / वली 'उज़लत'

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माह-ए-कामिल हो मुक़ाबिल यार के रू से चे ख़ुश
ख़म हो दम मारे हिलाल उस तेग़-ए-अब्रू से चे ख़ुश

एक झलक भी यार की शोख़ी की तुझ में नहीं ऐ बर्क़
तिसपे हम-सर हो तो उस की तुंदी-ए-ख़ू से चे ख़ुश

उस की जौलाँ की हवा से गई है बर्बाद और उस पर
मुद्दई है निकहत-गुल यार की बू से चे ख़ुश

आँख में हिरनों की ख़ाक-अफ़गन है उस की गर्द-राह
तिसपे गर्दन-कश हैं पी के चश्म-ए-जादू से चे ख़ुश

गरचे सुम्बुल है ऐ उज़लत तीरा-बख़्त और दाग़-ए-रश्क
पेच-ओ-ख़म खा कर है सरकश पी के गेसू से चे ख़ुश