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मिटा पाओगे सब कुछ / निर्मला पुतुल

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तो मिटा दो न
भयानक काली रात को
जो बरबस उमड़ती-घुमड़ती
चुभती है मेरी आत्मा को
कैसे मिटा पाओगे
मेरी यातनामय गूँगी चीत्कार

क्या करोगे क्रूर नज़रों और नज़रानों का
निपट अकेले जूझ रही हूँ जिनसे
मेरी नाभी में उठते शूल को ?

मन सिंहासन पर विराजमान
इंसाफ़ माँगती स्त्री के उठते
बलात्कारित सवालों को
कैसे मिटा पाओगे ?

क्या पाँव में चुभे
काँटो की तरह
कुरेद निकाल फेंकोगे
आत्मा में फँसी हुई पिन
गर्भ में गड़ी हुई ज़हर बुझी तीर
अन्दर ही अन्दर
नासूर बन टीसती टीस को
मिटा पाओगे किसी जन्म में ?

हज़ारों स्त्रियों के
बचाव में लड़ती
जो ख़ुद को बचा नहीं सकी
तेरी हैवानियत से
हज़ारों स्त्रियों की उफनती बेबसी को
मेरे बलात्कारित होने का जबाव दे
क्या मिटा पाओगे उन सबकी बेबसी ?

अभी-अभी जब बता रही हूँ
क्या सुन रहे हो मेरी आवाज़
क्या समझा सकोगे ख़ुद को ही
अपने जीवन और जन्म के रहस्य ?

सीधे-सीधे पूछती हूँ तुमसे
रात के सन्नाटे में
क्या कभी काँपती नहीं है तुम्हारी रूह
क्या कुछ भी तुम्हें याद नहीं आता
सुनाई नहीं देती औरतों की हिचकियाँ
और मेरी चुप्पी
क्या तुम्हें सुनाई नहीं देता
क्या तुम सो पाते हो
बेख़बर हो नींद में
ले पाते हो खुली साँस
क्या पलक ढँपी आँखों से
दिखता नहीं मेरा मासूम चेहरा
अपनी निरीहता का सबूत माँगते ?

क्या तुम्हें नहीं लगता कि
तुमने किया है क़त्ल मेरे विश्वास का
मेरी आबरू को सहेजने के बजाय
चढ़ा दी बलि
ऐसे में तुम पर समर्पित हो
कैसे कर लूँ यकीन
क्या करूँ न करूँ
बोलो न
कैसे मिटा पाओगे मेरा यह संशय
यह दुख यह दर्द
और अँधेरा
जो जून से जून तक फैला है ।