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मिटा सकीं कब दूरियाँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

1
जीवन के संग्राम का ,बड़ा कठिन है दौर।
पथ है काँटों से भरा,मिला कहीं ना ठौर।।
2
आँधी में वे उड़ गए,जो थे सूखे पात।
जो भी सच्चे मीत थे,संग वही दिन रात।
3
नफ़रत जो करते रहे,रोज़ उड़ाकर धूल।
तोड़ सकेंगे वे हमें, यह थी उनकी भूल।
4
निश दिन सींचे नेह से,रिश्तों का हर छोर।
युद्ध अँधेरों से ठना,लाएँगे हम भोर।।
5
बरसों पहले थे मिले, पर थे कोसों दूर।
जब तुम आए पास में, दुष्ट हुए काफ़ूर।
6
रोम रोम जल राख हो,है मुझको स्वीकार।
आँच किसी प्रिय को लगे,तो मुझको धिक्कार।
7
जिनकी नीयत पर रहा, हर पल हमको नाज़।
पंख काटकर कह रहे ,अब भरना परवाज़।
8
चाहे बैठें सामने,चाहे सागर पार।
मिटा सकीं कब दूरियाँ, मन से लिपटा प्यार।
9
प्राणों से लिपटे रहे,जिसके मन के तार।
मिटा नहीं सकता उसे,नफ़रत का संसार।।
10
किसे पाप- पुण्य कहें,ईश्वर का अधिकार।
काज़ी तेरा फैसला ,रब को कब स्वीकार।।
11
माना पसरा दूर तक,मीलों लम्बा मौन।
तुमने ही समझा नहीं,फिर समझेगा कौन।।