भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मिटेंगे फ़ासले, शिकवे-गिले मिटाने पर / शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
Kavita Kosh से
मिटेंगे फ़ासले, शिकवे-गिले मिटाने पर ।
ये हम तो मान चुके हैं, तुम्हीं न माने पर
हमारे तीर-ओ-कमाँ और हमीं निशाने पर
हुई ये मात मुहाफ़िज़ तुम्हें बनाने पर
ये आदमी भी नए दौर का, पहेली है
है सर किसी का, लगा है किसी के शाने पर
तसव्वुरात की दुनिया में जो उड़ाते थे
कतर दिये हैं हक़ीक़त ने वो सुहाने ’पर’
ज़मीर बेच के दस्तार ले तो ली लेकिन
मुझे लगा कि मेरा सर नहीं है शाने पर
ज़माना देखेगा, इक दिन ज़माने वाले भी
बदल तो जाएँगे, लग जाएँगे ज़माने... पर
बड़ी कठिन है ये शोहरत की रहगुज़र शाहिद
संभल न पाओगे इक बार लड़खड़ाने पर