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मिट्टी की मूरत / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती

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उसकी मूरत आज गल रही है ख़ून के भीतर
कीचड़ से बनी मूरत, उसका माथा, नाक
जबड़े, सुडौल होंठ, नाभिमूल
गल रहे हैं धीरे-धीरे,
गल रही हैं आँखें
निर्माण के सब जोड़ एक-एक कर खुल रहे हैं आज
दम्भ के, क्षमा के, चतुर प्रपंच और शान्त करुणा के
हिंसा और प्रेम के छाजन खिर रहे हैं
जतन से सजाए सारे उपादान आज
पातालगंगा में बहे जा रहे हैं,
उसके कीचड़ का शरीर
माँस-चर्बी धीरे-धीरे ख़ून के भीतर गल रहे हैं।

स्मृति के भीतर कभी भी पैर झुलाकर मत बैठना
स्मृति बड़ी भयावह होती है
स्मृति के गहरे पाताल में हमेशा लगे रहते हैं
दंगे, हत्याएँ, राहज़नी
स्मृति के गहरे पाताल में
ख़ून की भीषण लहरें बह आती हैं,
पहाड़े-जितनी लहरें उठ आती हैं
पाताल की गहराई से,
आज उठ आई थीं
आँखों के सामने ही वे आज एक और मूरत को बहाकर ले गई थीं,
कीचड़ से बनी मूर्ति
वह मूर्ति आज पातालगंगा में बही जा रही है
माथा, नाक, जबड़े, हँसुली, नाभिमूल
जतन से सहेजी मिट्टी की कीलें, बोल्ट
गल रहे हैं ख़ून के भीतर!!

मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी