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मिट्टी के लोग / आरती तिवारी
Kavita Kosh से
वे जन्मे थे इसी मिट्टी के सौंधेपन से
इसी में घिसटे और चले
घुटैंया घुटैयां
मटकों का पानी पीकर
हुए तृप्त उनके बचपन के खेल
इसी के बने घुल्ले दौड़ाये
पोला के हाट में
इसी के कल्ले पे बनी रोटी का स्वाद
भिगाता रहा मसें
खिलता रहा केशौर्य
याद करके इसी माटी के घरघूले
और बरखा की पहली बूंदों को
छककर सांसो में भरते भरते
बौराने लगा यौवन
उनीदी आँखों में समाने लगे
मौलश्री के ताजे टटके फूल
माटी के चबूतरे पे बैठ
निहारीं कितनी पनिहारिने
और इसी माटी में गुम हो गए
जाने कितने कुंआरे सपने
और ऐसे ही जीते जीते एक दिन बिला जायेंगे
हम लोग भी मिट्टी में
पर बची रहेगी यह कविता
जिसमें गंध है विचार की.
जिसमें प्यार है मित्रों का
जिसमें मिट्टी का ही ज़िक्र है