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मिट्टी में पड़ा धान / राजकिशोर राजन
Kavita Kosh से
ठीक नहीं लगता, जब दादी चुनती
मिट्टी से धान का एक-एक दाना
अकसर दादी से कहता
क्या ! इतने ग़रीब हैं हम
कि तुम नाख़ूनों से उठाती हो धान
परन्तु दादी बुरा मान जाती
और हम मिट्टी से चुनने लगते धान
उन दिनों बैलों को भर दुपहरिया
गोल-गोल चलना पड़ता धान के पुआल पर
हम भी चलते गोल-गोल
जैसे पृथ्वी को नाप लेंगे आज ही
सन जाते हाथ-पैर, कपड़े, पसीने-मिट्टी से
होने लगती साँझ
तब दादी को आता हम पर दुलार
चूम लेतीं, हमारा माथा
और बताती, मिट्टी में पड़ा धान रोता है बेटा
कि मिट्टी से आए और मिट्टी में मिल गए
तब बरकत नहीं होती किसान की
नहीं रही दादी, पर
मिट्टी में पड़ा धान
आज भी दिखाई देता है रोते।