मिट्टी से हाथ लगाये रह / हरिवंशराय बच्चन
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!
मैंने अक्सर यह सोचा है,
यह चाक बनाई किसकी है?
मैंने अक्सर यह पूछा है,
यह मिट्टी लाई किसकी है?
पर सूरज,चाँद,सितारों ने
मुझको अक्सर आगाह किया,
इन प्रश्नों का उत्तर न तुझे मिल पाएगा,
तू कितना ही अपने मन को उलझाए रह.
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह !
मधु-अश्रु-स्वेद-रस-रक्त
हलाहल से इसको नम करने में,
क्या लक्ष्य किसी ने रक्खाहै,
इस भाँति मुलायम करने में?
उल्का,विद्युत्,निहारों ने
पर मेरे ऊपर व्यंग किया,
बहुतेरे उद्भट इन प्रश्नों में भटक चुके,
तू भी चाहे तो अपने को भटकाएरह.
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह !
प्रातः,दिन,संध्या,रात,सुबह
चक्कर पर चक्कर कहा-खाकर,
अस्थिर तन-मन,जर्जर जीवन,
मैं बोल उठा था घबराकर,
जब इतने श्रम-संघर्षण से,
मैं कुछ न बना,मैं कुछ न हुआ,
तो मेरी क्या तेरी भी इज्जत इसमें है,
मुझ मिट्टी से तू अपना हाथ हटाये रह.
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह !
अपनी पिछली नासमझी का,
अब हर दिन होता बोध मुझे,
मेरे बनने के क्रम में था
घबराना, आना क्रोध मुझे,
मेरा यह गीत सुनना भी;
होगा,मेरा चुप होना भी;
जब तक मेरी चेतनता होती सुप्त नहीं,
तू अपने में मेरा विश्वास जगाए रह.
ये नियति-प्रकृति मुझको भरमाती जाएँगी,
तू बस मेरी मिट्टी से हाथ लगाए रह!