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मिट्टी हुई है लावा, दहका हुआ फ़लक है / विनय कुमार
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मिट्टी हुई है लावा, दहका हुआ फ़लक है।
ठिठुरे हुए दिलों में तफ़रीह की ललक है।
जो धूप सितमग़र थी इस बाम पर नहीं थी
हाँ शाम सुहानी है, हाँ रात की रौनक़ है।
राहें न बनीं तो क्या, बाहें न बढ़ीं तो क्या
चाहो तो चले आओ आवाज़ भी सड़क है।
सोने पे मुझे शक़ था क्या दूर किया तुमने
ऐ आग, सच कहूँ अब तुझ पर ही मुझे शक़ है।
तहज़ीब किसे कहिये, कहिये किसे तमद्दुन
जब तय नहीं हुआ है जीने का किसे हक़ है।
तकलीफ़ नहीं घटती, यह रात नहीं कटती
कुछ नींद ज़ख्म जैसी, कुछ ख्वाब में नमक है।
हैं चांद सितारे चुप, ख़ामोष हैं हवाएँ
कोई नहीं बताता यह रात कहाँ तक है।