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मिट गया था इख्तिलाफे बाहमी कल रात को / नज़ीर बनारसी

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मिट गया थ इख्तिलाफे बाहमी <ref>आपसी मतभेद</ref> कल रात को
जिन्दगी थी जिन्दगी दर जिन्दगी कल रात को

दहर <ref>समय, जमाना</ref> की हर शै नशे में चूर थी कल रात को
छा गयी थी रात पर दोशीजगी <ref>नौजवानी, कुँआरापन</ref> कल रात को

आसमाँ की गोद भी खाली न थी कल रात को
रात भी मौके से थी तारों भरी कल रात को

गम से खाली हो रही थी दो दिलों की कायनात
थी फज़ाए दो जहाँ मस्ती भरी कल रात को

थी किसी की हर नजर पहली किरन खुर्शीद <ref>सूरज</ref> की
हो रही थी सुबह की सी रोशनी कल रात को

इक फलक पर जल्वागर <ref>प्रकाशमान, सुशोभित</ref> था इक जीं पर नूर बार <ref>रोशन</ref>
चॉद दो थे और दोहरी चाँदनी कल रात को

चुप थे लेकिन चुप में भी इक छेड़ का अन्दाज था
खुद-ब-खुद होती थी पैदा गुदगुदी कल रात को

आरजूएँ किल रही थीं आरजूओं से गले
बुझ रही थी दो दिलों की तश्नगी <ref>प्यास</ref> कल रात को

मेरी गर्दन में पड़े थे उन हसीं बाँहों के हार
दीद के काबिल थी शाने आशिकी कल रात को

जिस्म दो थे और इक जाँ दो जबानें इक सदा <ref>स्वर</ref>
मिल गयी थी जिन्दगी में जिन्दगी कल रात को

रह गयी हिचकी-सी लेकर फिक्रे दुनिया ऐ ’नजीर’
गम को भी करनी पड़ी थी खुदकुशी कल रात को

शब्दार्थ
<references/>