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मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं / सुनील गज्जाणी

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किस नयन तुमको निहारूं,
किस कण्‍ठ तुमको पुकारूं,
रोम रोम में तुम्‍हीं हो मेरे,
फिर काहे ना तुम्‍हें दुलारू,
मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं।
प्रतिबिम्‍ब मै या काया तुम,
दोनों में अन्‍तर जानू,
हां, हो कुछ पंचतत्‍वों से परे जग में,
फिर मैं धरा तुम्‍हें माटी क्‍यूं ना बतलाऊं,
सुनो! तुम तिलक मैं ललाट बन जाऊं,
मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं॥
बैर-भाव, राग द्वेष करूं मैं किससे,
मुझ में जीव तुझ में भी है आत्‍मा बसी,
पोखर पोखर सा क्‍यूं तू जीए रे जीवन,
जल पानी, जात-पात में मैं भ्‍ोद ना जांनू,
हो चेतन, तुझे हिमालय, सागर का अर्थ समझाऊं,
मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं॥।
विलय कौन किसमें हो ये ना जानू,
मेरी भावना तुझ में हो ये मैं मानू,
बजाती मधुर बंशी पवन कानों में हमारे,
शान्‍त हम, हो फैली हर ओर शान्‍ति चाहूं,
मित्र! तुम्‍हें मेरे मन की बात बताऊं॥।