मित्र प्रवर शंकर मिश्र / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
विगत तथा आगत प्रभातकेर
मध्यबिन्दु सन्ध्या थिक
निर्विवाद एक मात्र बात यैह सत्य थिक।
गेङ भने जोति दिऐ
से तँ थिक भिन्न बात।
सन्ध्या अन्हारकेर आगमनक सूचक थिक।
तारा सब भरि राति
अपसियाँत होइत रहत,
चन्द्रमा से कूद फान करिते रहताह,
मुदा अन्धकार तानि लेत छतरी
आकाश छापि, रहल डटल तावत धरि
जाधरि प्रभात फेर अलसयलो
जागत नहि,
लाल-लाल सूर्यकेर गोला ओ दागत नहि,
अन्धकार भागत नहि।
कविवर कबीर केर तनके चदरयिाकेँ
समय अँटकि तागत नहि,
देखत अनागत नहि,
करत कतहु स्वागत नहि,
मनो तखन लागत नहि।
तहिना विचार करू-
जीवन सँ जीवन धरि
कालावधि नपलासँ
मध्य बिन्दू मृत्यु थीक।
जीवनकेर दर्शन तँ
भिन्न-भिन्न व्यक्ति केर अपन-अपन होइते छै
उचितो थिकैक सैह,
किन्तु मृत्यु सत्य थीक,
एकरा के मानत नहि,
सम्प्रति छी भोगि रहल
जीवन जे अपने हम तकरे भविष्य जखन एक मात्र
मृत्यु सत्य
तखन तकर डरें सुटुकि बैसि रही एक कात
कायरता छोड़ि और कहा की सकैत अछि?
सोचू हे बन्धु।
तीत होइछ अतीत
तथा मृत्यु थिक भविष्य।
अतः दूनू केँ छोड़ि
वर्त्तमानकेँ सम्हारू
आ तदनुसार डेग दियऽ-जीवन संघर्षमे।
अग्रज, हितचिन्तक आ मित्र प्रवर शंकर मिश्र
सदिखन कहैत छला अपना सम्बन्धमे।
आइ-जखन सुनलहुँ जे
अपने रहलाह नहि,
आँखि छलछलाय गेल,
संगहि ई बात हुनक
अवचेतन मनमे जे पहिने घुरिआइत छल
एखनहु घुरिआइत अछि।