मित्र / सौमित्र सक्सेना
मुझे समुद्र के पानी से मुँह धोने का बहुत मन होता है ।
ऐसी इच्छा होती है कि
देर तक नमक के थपेड़ों से
चेहरे को सेंकता रहूँ ।
मुझे लगता है जैसे
सागर के भीतर बहुत सारे
लोग रहते हैं
नदियों में घुली अस्थियाँ
अंततः यहाँ ही तो आती होंगी ।
आते आते
सब बदल गयी होंगी नमक में ।
अक्सर
मैं उन सबसे बात करना चाहता हूँ
सदियों से मौन थके मृतक
कहाँ कह पाए होगें किसी से
अपनी निर्जीवता के सुख-दुख।
मेरा ऐसा मन होता है कि
मैं उनकी सब इच्छाएँ
पूरी कर सकूँ
ऐसे जैसे वो जब भी
अनुरोध करेगे मै उतर आऊॅगा उनके पास ।
मैं तट से दूर
बहुत आगे तक जाना चाहता हूँ पानी में
ऐसे जहाज से तो सब जाते है ।
मै दौड़कर भेदना चाहता हूँ सागर
अंदर की अनहुई जगहो पर
नीली शांति में लीन
उनके जीवन से जुडी बहुत सी चीज़ें हैं
मैं हाँफकर उन्हें
जीवित साँसों की गर्मी से
जोड़ना चाहता हूँ ।