भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मिथ्या / शंख घोष / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
यह मुख निर्मल नहीं
मिथ्या लगी इस पर
अच्छा नहीं पास में
जाना तुम्हारे अभी
तुम तो स्नेही सुदक्षिणा
मेघमय धार उतर आती
आज भी आँखों के जल से तुम्हारे
रुद्ध देश भर जाता पुण्य से।
फिर भी मैं दूर चला जाता
यह मुख निर्मल नहीं,
बोधहीन पीला शरीर
जाता थम, तापीं1
तुमने दिया बहुत कुछ
मेरा तो समस्त ही
देना अभी बाक़ी।
1. तापीं : तपस्विनी
मूल बंगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल
(हिन्दी में प्रकाशित काव्य-संग्रह “मेघ जैसा मनुष्य" में संकलित)