भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मिनखाजूण गमाई ना / मानसिंह शेखावत 'मऊ'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई भूंडो ओर सांतरो !
मिनख मिनख में घणों आंतरो !!
भाईचारो ऐक दांत रो !
ऐक आदमी भांत भांत रो !!
साँच ऐक सौ पीड़ाहारी ,
कहतो तूँ सरमाई ना !
मिनखाजूण गमाई ना !!
ध्यान डिगासी पण मत डिगजे !
गेला-गूंगा नैं मत ठिगजे !!
मत पंडत पाखंडी दिखजे !
मन रा सबद मनां सूं लिखजे !!
मारग मिलसी घणी मेनका ,
रूप देख ललचाई ना !
मिनखाजूण गमाई ना !!
जीकारां री झड़प उड़ैैला !
मनवारां मोट्यार मुड़ैला !!
मुतलब रा मंगेज थुड़ैला !
आगै-पाछै जगत जुड़ैला !!
आकासां में उड कर बीरा ,
रापटरोळ मचाई ना !
मिनखाजूण गमाई ना !!
यार-भायला घणां मिलैला !
अर कागद रा कुसम खिलैला !!
मूंडै रा आदेस झिलैला !
भीड़ देखकै आय भिलैला !!
धरम-धजा नैं धारण करजे ,
पण करजे कुटळाई ना !
मिनखाजूण गमाई ना !!
जण जण आगै नहीं झींकणों !
न्हायां पड़सी तनैं भीजणों !!
संकट पड़ियां मिलै सीखणों !
दड़कीजै मत तनैं दीखणों !!
कांण-कायदा राख ताकड़ी ,
झूंटी बिगत मँडाई ना !
मिनखाजूण गमाई ना !!