मिरे महबूब! नान्देश! पत्थर दिल! ख़ुदा हाफ़िज़ / विजय 'अरुण'
मिरे महबूब! नान्देश! पत्थर दिल! ख़ुदा हाफ़िज़
तिरी चश्मे करम के हम नहीं क़ाबिल, ख़ुदा हाफ़िज़।
तिरे क्या हम किसी के भी नहीं क़ाबिल, ख़ुदा हाफ़िज़
हमारा कौन समझेगा ये सोज़ेदिल, ख़ुदा हाफ़िज़।
तुम्हें मालूम है ख़ूबां ख़ुदा ही एक कामिल है
मैं आशिक़ हूँ, मैं नाक़िस हूँ, वुही कामिल, ख़ुदा हाफ़िज़।
मिरे पैरों में बेताबी, तिरे पैरों में ठहराओ
हमारा साथ ही क्या है, मिरे आक़िल! ख़ुदा हाफ़िज़।
मैं राहे इश्क़ो उल्फ़त में हुआ गर्मे सफ़र इतना
कि चिल्लाई मिरे पीछे मिरी मन्ज़िल, ख़ुदा हाफ़िज़।
सफ़ीने के ज़रीए से कहीं साहिल नहीं मिलता
मैं देदखूँ डूब कर शायद मिले साहिल, ख़ुदा हाफ़िज़।
कि इस से क़ब्ल कोई हाशिया आराई हो उस पर
'अरुण' दीवाना कहता है भरी महफ़िल, ख़ुदा हाफ़िज़।