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मिरे सिमटे लहू का इस्तिआरा ले गया कोई / रियाज़ लतीफ़
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मिरे सिमटे लहू का इस्तिआरा ले गया कोई
मुझे फैला गया हर-सू किनारा ले गया कोई
बस अब तो माँगता फिरता हूँ अपने आप को सब से
मिरी साँसों में जो कुछ था वो सारा ले गया कोई
बदन में जो ख़लाओं का नगर था वो भी ख़ाली है
मिरी तहज़ीब का तन्हा मनारा ले गया कोई
जहाँसे भाग निकला था वहीं पत्थर हुआ आख़िर
मुझे साँसों की सरहद तक दोबारा ले गया कोई
अज़ल से अब तलक मुझ को इषारे कर रहा था जो
शब-ए-ना-आश्ना से वो सितारा ले गया कोई