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मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रति / अनुराधा महापात्र / जयश्री पुरवार

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कभी इस धरा पर आए थे,
कितना कुछ विनाश से पहले
कवितायें भी लिखी थी ।
मृत्यु और अश्रुपात
चिरकाल से नमाज के नीचे दबाकर रख देते ।

फिर आज क्यों
फूलों की भस्म की तरह
स्पंदित होते हो ?

क्या यह जानकर
कि विषाद का कोई अन्त नही है,
केवल प्रदोष में उतर आने के अलावा ।

मौलश्री के फूल भी मर रहे हैं, मिर्ज़ा,
मौलश्री की तरह।
शमशान का व्यंग्य लेकर जीवित हूँ
इस मरू शहर में

स्पन्दित करो, कवि !
पथ मेरा —
प्रकाश से, प्रेम से ।

मूल बांग्ला से अनुवाद : जयश्री पुरवार