मिलजुल / राम सेंगर
ज़िन्दगी पहाड़ हो गई थी
चट्टानों को
मिलजुल कर काटेंगे
नहर बना लेंगे ।
अय्याशों की
बनकर मौज़ रह गई
अपुन जनों की पूरी बात ।
हवापक्ष के
अड़ियल नाज़ पर तनी
तबियत की ज़िन्दा औक़ात ।
रंग उतर जाने से
तौर नहीं बदला है
गा-गा कर कोशिश को
बहर बना लेंगे ।
अवसर, बस,
फूहड़-सा चुटकुला लगा
फुस्स हुआ है कितनी बार ।
छीना-झपटी
असभ्य होड़ हो गई
ज़ारी है हक़ की तक़रार ।
ठसकी में
खनक गई स्वर की
यह भ्रम फैला
रुद्ध इस तरन्नुम को
लहर बना लेंगे ।