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मिलती है जमाने मे मुहब्बत कहाँ कहाँ / रंजना वर्मा
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मिलती है जमाने मे मुहब्बत कहाँ कहाँ
होती न जाने प्यार की शोहरत कहाँ कहाँ
हम देख ही न पायें अश्क़ आंख में किसी
भटका रही हमे है ये आदत कहाँ कहाँ
ईमान सच की राह पे चलने की चाह में
काँटों पे की है चलने की हिम्मत कहाँ कहाँ
है मुफ़लिसी में भूख को रोटी न मयस्सर
किसको दिखायें घर की ये हालत कहाँ कहाँ
पैसों की तराजू पे तुला करती शख्सियत
करती है शर्मसार ये गुरबत कहाँ कहाँ
जब लड़खड़ायें पाँव बढ़ा हाथ थाम ले
देती है साथ दोस्त की सोहबत कहाँ कहाँ
माँगे बिना ही दे रहा नेमत जहान की
रब की हुई है हम पे इनायत कहाँ कहाँ