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मिलते रहे सिरहाने हमको / रोहित रूसिया
Kavita Kosh से
मिलते रहे
सिरहाने हमको
हरदम नए सवाल
कहाँ मिला है वक़्त
जो सोचूँ
कब उलझी
कब सुलझी डोरी
बूझी एक तो
नयी मिल गयी
पहेलियों से भरी तिजोरी
मौन पड़े हैं
समाधान सब
मसले हैं वाचाल
बाज़ारों में हुआ है सौदा
मँहगे सपनों का
सस्ते में
अंतहीन सन्नाटों
की ही धूम मची
रस्ते रस्ते में
प्रश्नों से तो
जेब भरी हैं
उत्तर हैं कंगाल
अंगारों को रख हाथों में
जब भी सोचा
सोचा चन्दन
बंजर-बंजर से
सपनों में
जब रोपा
रोपा नंदन वन
फिर भी जीवन
क्यों ऐसा
ज्यों गीत
बिना लय-ताल?