मिलना / कुलदीप कुमार
(यूँ ही कोई मिल गया था
सरे-राह चलते-चलते...)
चाँद जब रात की शिला पर
सर पटक-पटक कर जान दे रहा था
दु:ख के मारे तारे
एक-दूसरे के साथ खुसर-फुसर
करना भी बन्द कर चुके थे
जब अँधेरे का तारकोल
आत्माओं पर फैल कर चिमट गया था
उस समय तुमसे अचानक मिलना
एक चमत्कार ही तो था
हम मिले
जैसे
एक उल्का दूसरी उल्का से मिलती है
लाखों वर्षों में कभी एक बार
अंतरिक्ष की विराट को और अधिक विराट बनाते हुए
एक उल्का क्यों मिलती है दूसरी उल्का से?
उसका तो मार्ग अनिश्चित है
किसी को पता नहीं
कहाँ जाकर गिरेगी
गिरेगी भी या
नष्ट हो जायेगी
अपने अनिर्दिष्ट पथ पर
भीषण वेग से अन्धाधुन्ध दौड़ते हुए
जब निर्जीव उल्का के बारे में कुछ नहीं मालूम
तो हम जीते-जागते स्वाधीन इच्छा वाले मनुष्य हैं
हमारे टकराने का किसे पता रहा होगा?
शायद प्रारब्ध को भी नहीं
यदि ऐसी ही बनी रहे सृष्टि
सूर्य इसी तरह करता रहे
कथकलि आकाश में
तो
हम भी
किसी दिन
अपने-अपने अनिर्धारित पथ पर
निकल जायें
और फिर
कभी न हो मिलना
(ये चिराग़ बुझ रहे हैं
मेरे साथ जलते-जलते...)