मिलन / विमल राजस्थानी
बीत चुकी थी रात, प्रात होने वाला था
हल्का-हल्का तम था, हल्का उजियारा था
बोधिसत्व चल पड़े दूर यमुना के तट पर
जहाँ पड़ी थी क्षत-विक्षत वासव मरघट पर
उचित समय आ गया,वचन पूरा करना है
शिला फोड़ करुणा का उछल चला झरना है
यश जाता, यौवन जाता है, धन जाता है
जब सारा संसार पराया बन जाता है
घृणा, उपेक्षा, अवहेलना दंश भरते हैं
सहलाते हैं, व्यथा-भार हल्का करते हैं
क्षमामूर्ति उपगुप्त चले जा रहे अकेले
सोच रहे-क्या-क्या न कष्ट वासव ने झेले !
पहले तो पड़ गयी प्रेम में मुझ योगी के
लक्षण प्रकट हुए असाध्य प्रेम-रोगी के
उसने समझ लिया था मुझे प्राण धन-अपना
देखा करती थी दिन-रैन मिलन का सपना
उसने जीवन को समझा बस, हँसना-गाना
आत्मा का सौन्दर्य नहीं उसने पहचाना
उसे प्रकृति ने आकर्षण का सिन्धु दिया था
पर मररे मस्तक पर भी धर इन्दु दिया था
शिव ने भस्म किया था, क्रोधित हो, अनंग को
मैंने व्यर्थ कर दिया रति-पति की तरंग को
फिर भी मैं मनुष्य हूँ, मानव-मन मेरा है
करुणा, क्षमा, प्रेम जीवन का धन मेरा है
करती हैं वासना कलंकित प्रेम-प्यार को
घोल हलाहल दूषित करती अमिय-धार को
वासव का था प्रेम वासना का, दूषित था
सर्पीले आभूषण से आभूषित था
संभव है-वह प्रेम वासना-लिप्त नहीं हो
हुई अंजाने मे मुझसे ही भूल कहीं हो
हाड़-मांस के पुतलो के प्रति तीव्राकर्षण
मोक्ष-मुक्ति-पथ में न भला क्या विष का वर्षण
एक व्यक्ति में सिमट सकल भूतल का आना
एक व्यक्ति के हेतु भूल त्रिभुवन को जाना
यह भी तो प्रछन्न वासना का कौषल है
ओह ! मनुज अन्तरतम तक कितना निर्बल है
उसको क्या दूँ दोष, बली बस, संस्कार हैं
मैं इस तट पर, वह तट के दूसरे पार है
इसीलिये मैंने उसको था अस्वीकारा
समझ न पायी, व्यर्थ प्रेम ने उसको मारा
मानव भी क्या अद्भूत-सा प्राणी होता है
अपने ही हाथो पथ में कंटक बोता है
कुटिल वासना अंधा उसे बना देती है
देती अतुल यातना,दुःख घना देती है
इन सब से ऊपर चलता चक्र काल का
मनुज लक्ष्य बनता है अपने बुने जाल का
एक तरह तो वह उठ गयी आज भूतल से
स्वयम् छली वह गयी सृष्ट कर्मो के फल से
थी निर्दोष, नहीं वह इतनी गिरी हुई थी
भौतिकता के भूतों से बस, घिरी हुई थी
ओह ! मनुज का मन कितना चंचल होता है
नश्वरता के विष-बीजों को ही बोता है
यह संसार उसे कस कर बाँधे रहता है
इच्छाओं के वाण सदा साधे रहता है
धन-जन-प्यास, भूख यश की घेरे रहती है
धारा के विपरीत तरी रहती बहती है
नहीं मरण दीखता, प्रतिक्षण मरता ही है
अंधा हो कंटक-मग में पग धरता ही है
मरण दूसरो का सम्मुख झेला करता है
स्वयम् अमर जीवन से ही खेला है
जितनी कुटिल वृतियाँ, उसमें ही रमता है
भौतिक भागों को पाने की विहलता है
सांख्य, उपनिषद्, वेद, ग्रन्थ पढ़ना-सुनना है
थोथा पुण्य कमाता, उन्हे नहीं गुनता है
यदि शतांश भी जीवन में उतार लेता वह
निश्चय भव-निधि से नैया उबार लेता वह
धर्म कई फैले है, बस फैले ही फैले
विमल-धवल हो सके न मन मनुजो क मैले
तृष्णा, जरा, रोग-भय से कब मुक्त हुआ है
घृणा, क्रोध, लिप्सा पर ही अनुरक्त हुआ है
दर्प, दंभ, अभिमान, गर्व है, अहंकार है
डाह, द्वेष, ईर्ष्या,कृतघ्नता,-नहीं प्यार है
नहीं दृगों से छल-छल मानव-प्रेम छलकता
नहीं प्रेम का दीप हृदय-दीवट पर बलता
क्षमा, दान, करुणा, न अहिंसा से भींजा है
सदा अनय-अघ की ज्वाला में ही सीझा है
दंड दे रही प्रकति, मानना व्याघि, रोग है
कुफल कुकर्मो का है, कहता-भाग्य-भोग है
रहे बरसते जहाँ तथागत के करुणा-कण
वासव ! तुमने जिया भला क्यों ऐसा जीवन
रूप-दर्प, वासव-पंक मंे नख-शिख डूबी
नहीं एक पल को भी नश्वरता से ऊबी
तुम से दीखे शत-शत मथुरा के वासी
कैसे मथुरा उबर सकेगी यौवन-प्यासी
कैसे मनुज पार पायेगा मृग-तृष्णा से
सोच-सोच भर-भर जाता है मन करुणा से
चले जा रहे ऋषि, चिन्तन चलता जाता है
अन्तरतम मे ज्ञान-महोदधि लहराता है
पाप-पंक से लिपटा मानव तना नहीं बुरा है
यदि धुल जाते की तड़पन से उसका हृदय भरा है
अंधकार है निविड़, धुआँ दे रही चिताएँ
चिनगरियाँ भला कैसे प्रकाश फैलायें
तम को चीर, प्रभा अनभ्र ऐसी छायी है
मरघट में जीवन की कांति उतर आयी है
विद्रूपित आनन पर जो आभा-मंडल है
उसकी ज्योत्सना से झलमल यमुना का जल है
हो न सका निःशेष, रूप का भरा कोष है
पूर्व जन्म-फल-लाभ, नियति का नहीं दोष है
दुख से बोझित मन, निद्रा से बोझित पलकें
रह-रह कर आँसू की बूँदे दृग से छलकें
रोक से भी नहीं रुके अमित रुलाई
पद-ध्वनि अक्समात इतने में पड़ी सुनसई
आहट अप्य आहटों से कुछ भिन्न लगी है
वासव तंद्रा में थी,कहरी, उठी, जगी है
पद-ध्वनि परिचित नहीं, किन्तु, लगती परिचित सी
मनुजाकृति आ रही निकट धुँधली, स्मिति-सी
गैरिक वस्त्र दृष्टि-पथ में आते-जाते हैं
‘‘-ये तो हैं उपगुप्त, विभा-कण बरसाते हैं
ओ मेरे दुर्भाग्य ! किया यह तूने क्या रे !
प्रथम दृष्टि-विक्षप, दिया यह तूने क्या रे !
यह विदू्रप चेहरा ओह ! दिखाऊँ कैसे ?
कोई तो कुछ कहे कि मैं मर जाऊँ कैसे ?
यह वीभत्स, कुरूप, घिनौना आनन मेरा
हत्या के काले कंलक का जहाँ बसेरा
प्रथम दृष्टि-विपक्ष, अहह ! कितना असह्य है
सोच, मुझे ही जड़ तक हिला दे रहा भय है
बीते जीवन ! ओह !! जिया मैंने तुमको ?
रूप-सुधा-मद ! अरे ! पिया मैंने तुमको ?
कभी मृत्यु का, रोग-जरा का ध्यान न आया
सदा उड़ी कल्पना-लोक में रति-पति-जाया
धर्म ? धर्म क्या वस्तु, नहीं सोचा सपने में
मगन रही सौन्दर्य-साधना में, अपने में
प्रेम शद से सदा अपरिचित रहने वाली
अन्यों की आसक्ति-धार में बहने वाली
प्रथम दृष्टि में हृदय दे दिया था, बेबस थी
सरबस किया निछावर, क्या करती, परबस थी
नहीं किसी का भी अनिष्ट है चाहा मैंने
इतना मानव-धर्म अवश्य निबाहा मैंने
फिर क्यों ऐसा दंड मिला है मुझे अचानक
यह निष्कासन, यह आनन की दशा भयानक
भीड़ विदा लेे चुकी, रह गया प्राण अकेला
निकट आ गयी, बहुत निकट जाने की बेला
किन्तु, विदा से पूर्व प्रश्न है तुमसे जीवन !
क्या न हो तुम्हीं हो नियति, भाग्य, क्षय, जरा औ‘ मरण ?
जो भी खेल यहाँ सुख-दुख के होते रहते
क्या न नियति बन बीज तुम्हीं हो बोते रहते ?
ओह ! बिना माँगे तुमने क्या नहीं दिया रे !
तेरी इच्छा से ही तुमको क्या न जिया रे !
मैंने कब चाहा था यों धरती परर आना
आकर यों जन-जन के मानस से जुड़ जाना
किन्तु, धरा ही नहीं, गगन से तुमने जोड़ा
नहीं समझ पायी मैं खेल तुम्हारा थोड़ा
दिये धरा-आकाश, पुनः पाताल दे दिया
दिये पवन उनहास, कु्रर भूचाल दे दिया
निपट कुँआरी कोख लूट कर था जन्माया
नियति ! सच कहूँ तो मैं तेरी ही जाया
विदा ! विदा ! ओ नियति ! या कहूँ तुमको जीवन ?
माँगा मैंने मात्र एक मीठा आलिंगन
प्रथम प्रथम मैंने सम्मुख कर फैलाया था
आँखो में याचना-महोदधि लहराया था
राके-रुके न आँसू, अबला बाँह पसारे
हृदयहीन ! याचक बन कर आयी थी द्वारे
किन्तु, एक छोटी-सी भीख न तुम दे पाये
करुणा के बदलेे ये अंगारे बरसाये
लूट लिया मुझको तुमने शत-सहस करों से
मुझ विहंगिनी को विछिन्न किया सुनरों से
जिस चंद्रानन की प्रदीप्ति से जग जगमग था
जिस रूप-श्री से समस्त त्रैलोक्य सुभग था
सोख लिया सौन्दर्य-सिन्धु, यह तलछट सौंपा
छीप अमृत का कोष, तृषित को विष-घट सौंपा
आह ! जिला कर मुझे भला रक्खा क्यों कर है
क्या उद्देश्य तुम्हारा कुटिल इतर है ?
क्या रह गया शेष जिसकांे मुझसे लेना है
दुख का दिया हिमालय री ! अब क्या देना है
जीवन ! तुम्हीं नियति हो, मैंने जान लिया है
यह दुष्चक्र-प्रहार तीव्र पहचान लिया है
ओ निष्ठुर ! बिन माँगे क्या तुम न मिले थे
बेमौसम ऋतुपति के अरुणिम अधर हिले थे
मैंने कब चाहा ओ जीवन ! मुझे मिलो तुम
अनब्याही ऋतु को छल कर चुपचाप खिलो तुम
देव-दहरी दे दी तुमने आते-आते
बीत गया शैशव तितली-सा पर फैलाते
अनायास मैं क्या पा गयी गोद धरा की
मैं कुहेलिका भेद सकी न परा-अपरा की
बिन मांगे ओ नियति ! न क्या कुछ मुझे दिया री !
मैं सुधा-सिन्धु छक-छक कर क्या न पिया री !!
मुनि अगस्त ने पिया एक अंजलि में जैसे
एक घूँट में पिया उसे मैने भी वैसे
उलट-पुलट मेरा सारा भूगोल कर दिया
चिता-धूम्रसे तारो भरा खगोल भर दिया
ठुकरा दी याचना, हाय ! सौंपा यह मरघट
पर संभवतः यही सत्य, शाश्वत अक्षय वट
जाते-जाते भी तुमने जो छाँह मुझे दी
मैं कृतज्ञ हूँ नियति ! सत्य की थाह मुझे दी
जो भी तुमने दिया, नहीं देती उलहाना
संभवतः था यही धर्म तुझको निबाहना
किन्तु, एक प्रार्थना, याचना, एक विनय है
ढ़ग तुम्हारा धर्म निभाने का न सदय है
नहीं किसी को यों भविष्य में दंडित करना
जानबूझ करर उड़ते खग के पर न कतरता
नहीं पंख फैलाये थे मैंने अपने से
परिचित तुमने ही तो किया सपने से
लो मेरा अंतिम प्रणाम, लौटा अपने को
नहीं किसी को भी देना ऐसे सपने को
ओह ! ज्ञात है नहीं सुनयना कहाँ खो रही
पता नहीं तेरे हाथों क्या दशा हो रही
एकमात्र वह ही तो थी इस जग में मेरी
वह नियति ! गयी तेरे हाथो ही घेरी
दासी ही थी नहीं, संगिनी मेरी भी थी
मन के पिंजरे की विहांगिनि, चेरी भी थी
मेरे आँसू थे उसके, दुख मेरा उसका
सदा रहा दोनो बाँहो का घेरा उसका
मेरी आँखो में पल-पल झाँका करती थी
मेरी हर गति-विधि सर्तक ताका करती थी
श्रंृगारों के तेवर वह बाँका करती थी
तारक तोड़, चुनरिया में टाँका करती थी
अरी विपथगे नियति ! सहारा वह भी छीना
भला अर्थ क्या रखता है यों लुट कर जीना
मेरे बिना न जाने ओह ! रहेगे कैसे !
बिना धरा के धारा हाय ! बहेगी कैसे !
कौन अश्रु पोंछेगा, गले लगायेगा री !
अरी अभागी ! क्यो मेरे समीप आयी थी
अमर बेल-सी क्यों मुझ लतिका पर छायी थी
छिन्न-छिन्न हो गयी लता हाथों जीवन के
देख, समर्पित से कर दिया गया अगिन के
कोई भी तो नहीं सांत्वना-बोल कहे जो
मेरे दुख का बोझ-बाँट ले, उसे सह ले
तुम हो जहाँ, जिस दशा में ीाी मेरी नयने !
यह आँसू का हार समर्पित तुम्हें सुनयने !
यह मेरा सम्पूर्ण प्यार-उपहार तुम्हें है
ओ मेरे उपगुप्त ! जहाँ भी हो, प्रणाम है
नहीं किसी का दोष, विधाता हुआ वाम है
यह मेरी थी भूल, झुकाना चाह रही थी
क्षमा चाहती हूँ, अपराण वृहद है मेरा
पद-पद्यो पर अर्पित अश्रु-जलद है मेरा
विदा ! विदा ! यह जन्म समर्पित है आशा को
क्षितिज पार मिलन की उत्कृट अभिलाषा
प्रिये सुनयने ! आँसू अभिमंडित प्रमाण लो-
लो प्रणाम उपगुप्त ! नियति ! नभ ! क्षिति ! प्रणाम लो
हृद-गति मंद, प्राण तन से कुछ हटे-हटे हैं
नयन बंद, वासव के कर-तल जुटे-सुटे हैं
मस्तक पर कर-पुष्ट, झर रही करुणा झर-झर
काँप रही वासव भीतर ही भीतर थर-थर
गुरु-गंभीर गिरा गँूजी-‘‘आँखों को खोलो
यमुना का जल पास, कटे अंगो को धो लो‘‘
घीरे -धीरे खुले नयन, वासव ने देखा
कौंध गयी नयानों में चमचम विद्युत-रेखा
सम्मुख एक प्रकाश-पुंज, आलोक प्रखर है
गुरु-गँभीर स्वर जैसे मेघों का ही स्वर है
स्वयम् सूर्य्य समुपस्थित हो ज्यों मध्य दिवस का
शनैः शनैः वह तेज घटा,घट फूटा रस का
रोम-रोम से निर्झर-सा झरता प्रकाश है
मुख-मंडल दीपित ज्यों पूनम चंद्र-हास है
करुणा, दया, क्षमा का सम्मुख मेघ खड़ा है
जितना सोचा था उससे यह बहुत बड़ा है
जैसे तेज सिमट आया सारे खगोल का
अमृत-सिन्धु हो जैसे नभ-चंबी किकोल का
स्वयम् ब्रह्य आ खड़े हुए हों बाहु पसारे
स्वयम् तथागत समुपस्थित हों जैसे द्वारे
सह ना सके दृग तेज-पुंज यह ज्योतिर्धारा
यह अलोक गहन, प्रकाश का यह फौआरा
खुले नयन, फिर बंद हुए विहृल वासव के
जीवन आकर लौट गया ज्यों सम्मुख शव के
ऊदे हरे घाव अन्तर के सहला-सहला
फिर गूँजी ध्वनि, परम शांति का झरना उछला