भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मिलावट / मनीषा जोषी / મનીષા જોષી
Kavita Kosh से
मैं नहीं कर पाती फ़र्क़ अब
काली मिर्च में मिले हुए
पपीते के काले बीज
और काली मिर्च के बीच ।
काली मिर्च के तीखे स्वाद की स्मृति
नहीं रही अब मेरी जिह्वा पर
और पपीते के बीज भी
नहीं लगते मुझे स्वादहीन ।
मैं अब नहीं पहचान पाती
दालचीनी के साथ मिले हुए
लकड़ी के छोटे टुकड़े
या हींग में मिला हुआ आटा ।
नहीं बची कोई स्मृति
अब मुझमें सुगन्ध की ।
कोई एतराज़ ही नहीं मुझे अब
घी में मिलाए गए उबले हुए आलू से
या दूध में मिलाए गए चावल के पानी से ।
शकरकन्द पर लगा हो चाहे गेरुआ रंग
या केसर में मिले हों लाल रंग के धागे ।
दरअसल, मैं करना ही नहीं चाहती फ़र्क़ अब
एक जीवन में मिलाए गए दूसरे जीवन से ।
मेरी रसोई आज प्रसन्न है —
घुल-मिल गए जीवन से ।