कई दिनों से मिला नहीं है
मित्र मुझे संवाद तुम्हारा ॥
नकली पहचानॉ का बोझा
धरे हुए हो अपने काँधे,
या फिर चलते अलग राह पर
अनुभव की गाँठों को बाँधे ।
कुछ मौलिकता बची हुई है,
या कि हुआ अनुवाद तुम्हारा ॥
क्या धुंधली अभिलाषा लेकर
महाशून्य में ताक रहे,
या फिर बढ़कर किसी शिखर की
ऊँचाई को आँक रहे ।
मन में चिडिया चहक रही है,
या साथी अवसाद तुम्हारा ॥
क्या मन हुआ तुम्हारा शहरी
या गाँवों में रचे- बसे हो,
गाँवों – से उन्मुक्त बने या
शहरों जैसे कसे – कसे हो ?
क्या शहरों ने छीन लिया है,
मिसरी जैसा स्वाद तुम्हारा ॥
अंतर्मन में अपनेपन के
क्या अब भी सन्दर्भ बचे है ?
अंतर के मंगल घट पर क्या –
नेह-भरे साँतिए रचे है ?
याकि प्रेम करना लगता है,
तुमको ही अपराध तुम्हारा ॥