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मिल के इक दीवाने को आये हैं समझाने कई / नज़ीर बनारसी

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मिल के इक दीवाने को आये है समझाने कई
पहले मैं दिवाना था और अब हैं दिवाने कई

किस तरह वह दिन भुलाऊँ जिस बुरे दिन का शरीक
एक भी अपना नहीं था और बेगाने कई

क्या हमारे दौर के कुछ पीने वाले उठ गये
आज खाली क्यों नजर आते हैं पैमाने कई

एक दिवाना उठा ऐसा वतन की ख़ाक से
जिसने तन्हा कर दिये आबाद वीराने कई

मुझ को चुप रहना पड़ा सिर्फ आपका मुँह देखकर
वरना महफिल में थे मेरे जाने-पहचाने कई

मुझको राहे-रास्त <ref>सही रास्ता</ref> पर क्या लाइयेगा मोहतरम
आप के जाते ही आ जाते हैं बहकाने कई

एक ही पत्थर लगे है। हर इवादतगाह में
गढ़ लिये हैं एक बुत के सब ने अफसाने कई

मैं वो काशी का मुसलमाँ हूँ कि जिसको ऐ ’नजीर’
अपने घेरे में लिये रहते है बुतखाने कई ।

शब्दार्थ
<references/>