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मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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मिल नगर से न फिर वो नदी रह गई।
लुट गया शुद्ध जल, गंदगी रह गई।
लाल जोड़ा पहन साँझ बिछड़ी जहाँ,
साँस दिन की वहीं पर थमी रह गई।
कुछ पलों में मिटी बिजलियों की तपिश,
हो के घायल हवा चीखती रह गई।
रात ने दर्द-ए-दिल को छुपाया मगर,
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई।
करके जूठा फलों को पखेरू उड़ा,
रूह तक शाख़ की काँपती रह गई।