भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मिसाल-ए-शम्मा जला हूँ धुआँ सा बिखरा हूँ / फ़ाज़िल जमीली
Kavita Kosh से
मिसाल-ए-शम्मा जला हूँ धुआँ सा बिखरा हूँ
मैं इंतिज़ार की हर कैफियत से गुज़रा हूँ
सब अपने अपने दियों के असीर पाए गए
मैं चाँद बन के कई आँगनों में उतरा हूँ
कुछ और बढ़ गई बारिश में बे-बसी अपनी
न बाम से न किसी की गली से गुज़रा हूँ
पुकारती थी मुझे साहिलों की ख़ामोशी
मैं डूब डूब के जो बार बार उभरा हूँ
क्यूँ इतना मेरे ख़यालों में बस गया है कोई
कभी किसी के तसव्वुर से मैं भी गुज़रा हूँ
कोई तो आज मुझे आँख भर के देखेगा
मैं आज अपने लहू में नहा के निखरा हूँ