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मिसाल-ए-शोला-ओ-शबनम रहा है आँखों में / शाज़ तमकनत

मिसाल-ए-शोला-ओ-शबनम रहा है आँखों में
वो एक शख़्स जो कम कम रहा है आँखों में

कभी ज़्यादा कभी कम रहा है आँखों में
लहू का सिलसिला पैहम रहा है आँखों में

न जाने कौन से आलम में उस को देखा था
तमाम उम्र वो आलम रहा है आँखों में

तेरी जुदाई में तारे बुझे हैं पलकों पर
निकलते चाँद का मातम रहा है आँखों में

अजब बनाओ है कुछ उस की चश्म-ए-कम-गो का
के सैल-ए-आह कोई थम रहा है आँखों में

वो छुप रहा है ख़ुद अपनी पनाह-ए-मिज़गाँ में
बदन तमाम मुजस्सम रहा है आँखों में

अज़ल से ता-ब-अबद कोशिश-ए-जवाब है ‘शाज’
वो इक सवाल जो मुबहम रहा है आँखों में