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मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ / इनामुल्लाह ख़ाँ यक़ीन

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मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ
जिंस तो है पे ज़ुलेखा सा ख़रीदार कहाँ

फ़ैज़ होता है मकीं पर न मकाँ पर नाज़िल
है वही तूर वले शोला-ए-दीवार कहाँ

ऐश ओ राहत के तलाशी हैं ये सारे बेदर्द
एक हम को है यही फ़िक्र कि आज़ार कहाँ

इश्क़ अगर कीजिए दिल कीजिए किसी से ख़ाली
दर्द ओ ग़म कम नहीं इस दौर में ग़म-ख़्वार कहाँ

क़ैदी उस सिलसिला-ए-ज़ुल्फ़ के अब कम हैं ‘यक़ीं’
हैं दिल-आज़ार बहुत जान-गिरफ़्तार कहाँ