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मीठा काँदा / असंगघोष

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बचपन में
मैंने देखा
माँ ने
बोरे में भरकर
अलगनी की ओट में
दीवार के सहारे
खूँटी पर
बाँध रखे थे
देशी काँदे,
माँ भरी दोपहरी में
मुझे फोड़कर देती थी मुट्ठी से
अपने हाथों बनी
ज्वार की रोटी खाने
अब नहीं है वह बचपन
अब वह अलगनी भी नहीं है
अब नहीं है वह बोरा
अब काँदे में वैसी मिठास भी कहाँ है।