मीडिया विमर्श / मंगलेश डबराल
उन दिनों जब देश में एक नई तरह का बँटवारा हो रहा था
काला और काला और सफ़ेद और सफ़ेद हो रहा था
एक तरफ लोग खाने और पीने को जीवन का अन्तिम उद्देश्य मान रहे थे
दूसरी तरफ भूख से तड़पते लोगों की तादाद बढ़ रही थी
उदारीकरण की शुरूआत में जब निजी सम्पत्ति और ऊँची इमारतों के निर्माता
राष्ट्र निर्माता का सम्मान पा रहे थे
दूसरी तरफ ग़रीब जहाँ भी सर छुपाते वहाँ से खदेड़ दिए जाते थे
देश के एक बड़े और ताक़तवर अख़बार ने तय किया
कि उसके पहले पन्ने पर सिर्फ़ उनकी ख़बर छपेगी जो खाते और पीते हैं
ऐसी स्वादिष्ट ख़बरें जो सुबह की चाय को बदज़ायका न करें
इस तरह अख़बार के मुखपृष्ठ पर
कारों, जूतों, कपड़ों, कम्प्यूटरों, मोबाइलों, फ़ैशन परेडों, डीलरों, डिजाइनरों
मीडियाशाहों, शराबपतियों, चुटकी बजाकर अमीर बननेवालों ने प्रवेश किया
एक उद्योगपति ने फ़रमाया बहुत हुआ ग़रीबी का रोना-धोना
आइए अब हम अमीरी बढ़ाएँ
देश एक विराट मेज़ की तरह फैला हुआ था जिस पर
एक अन्तहीन कॉकटेल पार्टी जारी थी
समाज में जो कुछ दुर्दशा में था
उसे अख़बार के भीतरी पन्नों पर फेंक दिया गया
रोग शोक दुर्घटना बाढ़ अकाल भुखमरी बढ़ते विकलांग ख़ून के धब्बे
अख़बारी कूड़ेदान में डाल दिए गए
किसान आत्महत्या करते थे भीतरी पन्नों के किसी कोने पर
आदिवासियों के घर उजाड़े जाते थे किसी हाशिए पर
ऐसे ही जश्नी माहौल के बीच एक दिन
अख़बार के बूढ़े मालिक ने अपनी कोठी में आख़िरी साँस ली
जिसकी बीमारी की सूचना अख़बार बहुत दिनों से दाबे था
उसके बेटों को भी बूढ़े मालिक का जाना बहुत नहीं अखरा
क्योंकि उसकी पूँजी की तरह उसके विचार भी पुराने हो चुके थे
और फिर एक युग का अन्त एक नए युग का आरम्भ भी होता है
अगर संकट था तो सिर्फ़ यही कि मृत्यु की ख़बर कैसी कहाँ पर छापी जाए
आख़िर तय हुआ कि मालिक का स्वर्गवास पहले पन्ने की सुर्खी होगी
ग्राहक की सुबह की चाय कसैली करने के सिवा चारा कोई और नहीं था
इस तरह एक दिन ख़ुशी की सब ख़बरें भीतर के पन्नों पर पँहुच गईं
कपड़े, जूते, घड़ियों, मोबाइल, फ़ैशन परेड सब हाशियों पर चले गए
अख़बार शोक से भर गया
नए युग की आवारा पूँजी ने अपनी परिपाटी को तोड़ दिया
और एक दिन के लिए पूँजी और मुनाफ़े पर मौत की जीत हुई।