मीरा / शिशु पाल सिंह 'शिशु'
तन्मय हो काली पुतली की भी तलीमें बैठ,
अखिलेश अलख ललाम देखलेती थी
द्वितीयाके चन्द्र से अमा का आवरण चीर,
अद्वितीयता का द्धुति धाम देख लेती थी
राई में सुमेर का विराम जानकार ‘शिशु’
रोम- रोम में रमा का राम देख लेती थी
जानेकौन- सा ममीरा मीरा थी लगाये हुये,
नैन मूँद के भी घनश्याम देख लेती थी
मैंने कहा- मीरे! जब व्योम विश्व- नयनों में,
श्याम- रंग की निखिल निधि भरता ही है
फिर क्यों तू एक उसी साँवले की गोपी बनी,
सीमाबद्ध रूप कभी कष्ट करता ही है
बोली- निराकार में निरा सर न मारो ‘शिशु’,
अगुन- सगुन बन देह धरता ही है
खांड औरखांडके खिलौने में न भेद कुछ,
किन्तु फिर भी खिलौना मन हरता ही है
जिसके चरण थे रसताल की सीमा तक,
व्योम तक अलक- समूहलहराया था
जिसके असंख्य श्वास वायु के विधायक थे,
उदधि उदरमें असीम घहराया था
जिसकी शिराएँ सरिताओं में बही थीं ‘शिशु’,
अस्थियों ने शैल- श्रेणियों का रूप पाया था
वही लीलाधाम श्याम मीरा की पुतलियों के,
तिल भर ठौरमें सदैव को समाया था