भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुँह देखते हैं हज़रत / अकबर इलाहाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुँह देखते हैं हज़रत, अहबाब पी रहे हैं
क्या शेख़ इसलिए अब दुनिया में जी रहे हैं

मैंने कहा जो उससे, ठुकरा के चल न ज़ालिम
हैरत में आके बोला, क्या आप जी रहे हैं?

अहबाब उठ गए सब, अब कौन हमनशीं हो
वाक़िफ़ नहीं हैं जिनसे, बाकी वही रहे हैं