मुंतज़िर आँखों में जमता ख़ूँ का दरिया देखते / राशिद 'आज़र'
मुंतज़िर आँखों में जमता ख़ूँ का दरिया देखते
तुम नहीं आते तो सारी उम्र रस्ता देखते
वुसअत-ए-कौन-ओ-मकाँ इस रेग-ज़ार-ए-दिल में है
आरज़ू है तुम भी आ कर दिल का सहरा देखते
अपने मरने की ख़बर इकदिन उड़ाते काश हम
चाहने वालों का अपने फिर तमाशा देखते
सर पे सूरज आ गया फिर भी न खोली हम ने आँख
सुब्ह उठते भी तो आख़िर किस का चेहरा देखते
इस जहान-ए-रंग-ओ-बू में देखने को क्या रहा
तुझ को देखा और इन आँखों से हम क्या देखते
तेरे गालों के मुक़ाबिल दिल में हसरत रह गई
एक दिन तो हम शफ़क़ का रंग गहरा देखते
सारे चेहरे देख डाले सारी दुनिया छान ली
जुस्तुझू अब तक यही है कोई तुम सा देखते
सारे लम्हे याद आते जो गुज़ारे तेरे साथ
जंगलों में आग को जब हम दहकता देखते
क्या पता सीना जला देती हमारा ग़म की आग
हम जो अपनी तरह ‘आज़र’ उस को तन्हा देखते