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मुंतज़िर बैठे हुए हैं शाम से / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

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मुंतज़िर बैठे हुए हैं शाम से
और हम वाक़िफ़ भी हैं अंजाम से

मिल गये जब तुम तो कैसा काम फिर
घर से हम निकले थे यूं तो काम से

जो पिता के हुक्म का पालन करें
अब कहां बेटे जहां में 'राम` से

आ मिरी गहराइयों में डूब जा
कह रही है ये सुराही जाम से

भर गया कांटों से दामन प्यार में
दिल मिरा वाक़िफ़ न था अंजाम से

ले गये वो इक नज़र में नक्द़े-दिल
लुटने वाले लुट गये आराम से

रफ्त़ा रफ्त़ा सुबह तक सब बुझ गये
वो दिये जो जल उठे थे शाम से
 
ये भी है उस की मुरव्वत की अदा
पी गया वो आज मेरे जाम से

क्यों न हों मक्ब़ूल 'रहबर` मेरे शे`र
लिख रहा हूं हट के राहे-आम से