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मुंदी हैं, सोेई नहीं / राहुल कुमार 'देवव्रत'
Kavita Kosh से
कैसी अलामत है
मिला जब से कोई दरवेश
कि ज्यों ही देखते देखा
पलटकर चल पड़ा फिर राह अपनी
सन्न-सा
स्वप्न सोने ही नहीं देते हैं तब से
रात फूलों को खिलते देखा है कई दफ़े
भ्रम के वशीभूत
तुम्हें छूने की कोशिश
जैसे गंदले पोखर में गोता लगाना
और खोजना मोती
देखा था ...
स्वाति की बूंद पिया सीप
कीचड़ की तहें छेद छिपा बैठा है
ग्रहों के चक्र की निराधार गणना
कि जैसे ऊंगली से खींचना
पानी पर कोई लकीर
ये कैसी आतिश है?
रात देखा है फिर से
लाल अयालों वाला श्वेतवर्ण सिंह