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मुंबई / रंजना मिश्र

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अफ़्रीका की भूख बसती है यहाँ
पतली टाँगों और फटी आँखों में
उस ट्रैफ़िक सिग्नल पर
शामें—
जहाँ पेरिस हो उठेंगी
अनगिनत आँखें हैं,
जो दूर नज़र आते अपने सपनों के प्रतिबिंब और भूख से चिपकी
लगातार चलती रहती हैं—7.45 की लोकल छूट न जाए कहीं!
नीले और भगवा रंगों की इक और भीड़ है,
शिवाजी पार्क है,
हवा में उठते लहराते हाथ हैं
जो इतिहास के चेहरे की कालिख को कोई और रंग देना चाहते हैं
मछलीवालियाँ हैं, जैन मुनि हैं, हीरे हैं, अंडरवर्ल्ड है
और नायिका की पतली कमर पर बोलियाँ लगाता ये शहर है
जहाँगीर आर्ट गैलरी, काला घोड़ा और पृथ्वी थिएटर, कोलाबा की
उन अँधेरी गलियों की बाँहों में बाँहें डाल सिगरेट के कश लगाते हैं
जहाँ हिजड़े हैं, नशे का बाज़ार है, रंडियाँ हैं
सभी ने अपनी अपनी भूख लटका रखी है अपने खोखले सीनों में—
तमग़े की तरह
उनींदी रातों, आधी रोटी की भूख, बूढ़ी इमारतों वाला
बुख़ार से तपता यह शहर रोज़ आगाह करता है—
'दिस बिल्डिंग इस नॉट सेफ टू रिसाइड'
फिर भी रोज़ दर रोज़ हज़ारों सपने उतरते हैं
दूर-दराज़ की किसी रेल से
और गुम हो जाते हैं
नर्क-सी कोठरियों में
वे अक्सर ज़िंदा बाहर नहीं आते
रोज़ अपने अधूरे नर्क रचता है यह शहर
उस दिन से, जब रूई लदा एक जहाज़
समुद्र से छीने इसके किसी किनारे पर आ लगा था और जल गया था
आग की लपटों ने उस रात सोने की बारिश की थी
शहर फिर लंबी उनींदी रात में बदल गया
उसने खुली आँखों के सपने देखे
सोने की जगह उसके पास, वैसे भी न थी
पर कैसी अजीब बात—
नर्क के दरवाज़े पर खड़ा यह शहर
ठीक उसी समय इंसान हो जाता है
जब कई हाथ बढ़ते हैं उन हाथों की तरफ़ जो
अपने सपनों की बैकपैक संभाले
लोकल की तरफ़ दौड़ रहा होता है...
उभरी नसों वाले, खुरदरे, बोरियाँ ढोने, झाड़ू लगाने
और किन्ही दफ़्तरों में रोज़ी कमाते
इस पूरी कायनात को अपने हाथों में उठाए हाथ
थाम लेते हैं दूसरा हाथ
वे उसका धर्म नहीं पूछते, न ही जात
वे सिर्फ़ हाथ होते हैं, आदमज़ात के हाथ,
रक्त शिराएँ गुँथी हैं उन हाथों में
दुनिया की तमाम नदियों की तरह
कोई नाद गूँजता है जैसे—अहम ब्रह्मास्मि
कसकर थाम लेते हैं वे उसे
सपनों की उस लोकल में थोड़ी जगह और बनती है
एक जोड़ी पैरों के लिए!