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मुंबई : कुछ कविताएँ-2 / सुधीर सक्सेना
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मैं कोलाबा में हूँ
जाने बगैर की कहाँ है कोलाबा
शहर के भूगोल से अनभिज्ञ
समुंदर से
बहुत दूर नहीं है कोलाबा
दिखे-न दिखे
बहुत नगीच है समुंदर
अभी भी
कोलाबा की पिंडलियाँ
डूबी होंगी समुंदर के पानी में
कोलाबा में हवा नहीं तैरती
तैरती है मछलियाँ
उतर जाती हैं वे
दृष्टि में आए बिना
नथुनों के रास्ते फेफड़ों में
कोलाबा छोड़ने के बाद भी
दूर तलक पीछा नहीं छोड़तीं
कोलाबा की मछलियाँ।