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मुंबई : कुछ कविताएँ-8 / सुधीर सक्सेना
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रात
जब वायलिन बजाता है समुद्र
बेआवाज़ तारे झरते हैं
जैसे झरता है देह से अंगराग,
पाँवों में रबड़ की चप्पलें डाल
हवा डोलती है अभिभूत,
आँखों को मूंद झुका लेती हैं गर्दनें पेड़ों की कतार,
कुछ नहीं बहता
बस, बहता है धुनों का सैलाब
एक भीगा हुआ दर्द
कुनमुनाता है इस छोर से उस छोर तक
छा जाता है एक अविरल जादू
काश, हम भी बजा पाते
कोई ऎसी धुन
--सोचते हैं हम,
रात जब वायलिन बजाता है
समुद्र।